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Friday 26 August 2011

थका नहीं रुका हूँ

इक परिंदा जो असमानों में उड़ा करता था,
अपने पंखों से हवाओं को रुख देता था,
अपनी परवाज़ तले सूरज को छाँव करता था
इक परिंदा
जिसकी नज़र में सितारे झुका करते थे
जिसके तसव्वुर में समंदर रुका करते थे
वक़्त का राही
जिसके पीछे दौड़ता हांफ जाता था
वो परिंदा सुना है
इक गुलाबी सी टहनी पे बैठा रहता है
तकता रहता है दीवानों की तरह
सुनता है न कुछ कहता है
शब-ओ-रोज़ खुद ही में पिघलता है बहता है
जाने सितम हुआ है या करामात हुई
सुना है तितलियों सा हुआ ये क्या बात हुई
अब तो वो ज़माने के लिए बीती बात हुई
अब न आस्मां है उसका और ज़मीन नहीं है
ये भी तय के वो मुतमईन नहीं है
अजीब ये है के वो खुश है गमगीन नहीं है
नज़रों से ही कहता है कि बहुत उड़ लिया
तूफ़ान फ़तेह कर लिए हैं फलक को सर किया
क्या खूब मुतअस्सर औरों को है किया
थका नहीं रुका हूँ हसरत-ए-दिल पे
दो पल ज़रा सा जी भी लूं अब तक नहीं जिया

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