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Saturday 9 July 2011

छम-से इक ख्याल आया

सोया सोया एक समंदर आँखों में जग जाता है
तेरी बात पे कैसा मंज़र आँखों में जग जाता है

रात की तारों वाली चुन्नी, छत पे सिमटी लगती है
ओस में धुलके खुश्बू तेरी मुझसे लिपटी लगती है
आँख मेरी तब चूर नशे में सतरंगी हो जाती है
तेरी कातिल आँख में जब भी हाय, वो खंजर लहराता है...
तेरी बात पे कैसा मंज़र आँखों में जग जाता है
सोया सोया एक समंदर आँखों में जग जाता है

बस इतनी सी ख्वाहिश है

मेरी तो जन्नत भी मेरा ही एक ख्वाब है
ज़रा -ज़रा सी बारिश हो, ...नशा -नशा सी रात हो
मुझे उम्मीद ना हो और तू आ जाए

तुझे तो पता भी क्या होगा

दिल कभी खुश भी होता है कभी नाराज़ होता है
तल्खियों में भी तेरे ख़याल से कहाँ आज़ाद होता है

दिन तो रोज़गार की दुशवारियों में गुज़र जाता है
तुझे क्या खबर क्या हाल तेरी याद के बाद होता है

दर्द है

दिल के जलने से ना धुंआ ना रौशनी ना आग , बस तपिश होती है
ना चैन आता है ना जाँ निकलती है, बड़ी बेदर्द खलिश होती है

करें भी तो क्या

हम कहते ठीक रहे समझे ग़लत जाते रहे
जाने जुबां हमारी 
अजनबी
थी या ज़माने की
ना उड़ी ही रूह, ना मुड़ी ही, बस झूलती-सी रही
रही आस्मां की भी तमन्ना और चाह भी आशियाने की
हम चाहते तो बस भी कह देते ज़ुल्म-ओ-सितम से
बस एक ललक-सी रही क़िस्मत को और आज़माने की
 

Friday 8 July 2011

मैं हूँ शीशा ही मगर यक़ीनन पत्थर से नहीं डरता

जुबान- ओ - जुम्बिश खुदा ने बक्शी मैं कुछ नहीं करता
मैं हूँ शीशा ही मगर यक़ीनन पत्थर से नहीं डरता
सहम-ओ-दहशत में रहा खूब जब खुद पे यकीं था
अब उस पे यकीं आया है अब नहीं डरता
कहने को तेरे शहर में इत्तेफाक बहुत है
दुआ कोई किसी के वास्ते शायद नहीं करता
हम दोनों ही थे मसरूर दिल दोनों ही थे आशिक
आखिर को मैं भी मान गया और क्या करता
तेरे लिए ये जंग तो औरों ने लड़ी थी
अमन-ओ- आज़ादी की इसलिए तू कद्र नहीं करता

ना जाने क्यों दिल ने कहा

अभी हाल ही में दम भरा,
चिल्ला के मैंने बोला,
दौलत नहीं है अव्वल,
रिश्ते है दिल के बढ़ के...
शोहदागिरी कि तुझको अल्लाह थी क्या ज़रुरत
खुद ही भरम जगाया खुद तोड़ भी दिया...?