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Friday 8 July 2011

मैं हूँ शीशा ही मगर यक़ीनन पत्थर से नहीं डरता

जुबान- ओ - जुम्बिश खुदा ने बक्शी मैं कुछ नहीं करता
मैं हूँ शीशा ही मगर यक़ीनन पत्थर से नहीं डरता
सहम-ओ-दहशत में रहा खूब जब खुद पे यकीं था
अब उस पे यकीं आया है अब नहीं डरता
कहने को तेरे शहर में इत्तेफाक बहुत है
दुआ कोई किसी के वास्ते शायद नहीं करता
हम दोनों ही थे मसरूर दिल दोनों ही थे आशिक
आखिर को मैं भी मान गया और क्या करता
तेरे लिए ये जंग तो औरों ने लड़ी थी
अमन-ओ- आज़ादी की इसलिए तू कद्र नहीं करता

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