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Wednesday 5 October 2011

ज़रा याद कर


वो रोज़ हालांकि चंद थे
मगर इश्क तो वो न झूठ था
मैं जो भूला न कभी लम्हा भर
ज़रा उन दिनों को तो याद कर.....

तेरा देखना मुझे प्यार से
तेरा रूठना कि मनाऊँ मैं
तेरा नाम अल्लाह का ज़िक्र था
तेरे रूठने का सो फ़िक्र था
तेरा दर ही काबा था मेरा
मैं मुरीद था तेरी दीद का
मुझे किसके आसरे पे छोड़ के
गया राह में ऐ हमसफ़र
मैं कहाँ था खुश तेरे बिना
इक सांस भी
तुझे है पता
कहाँ थी कमी
कहाँ थी खता,
ज़रा सोच के मुझे बता
ज़रा अपने दिल पे हाथ रख
कर आँख बंद और याद कर
ज़रा उन दिनों को तो याद  कर...

4 comments:

  1. Good poem with a spontaneous flow.

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  2. तेरा नाम अल्लाह का ज़िक्र था
    तेरे रूठने का सो फ़िक्र था.......bahut sunder kavita.....!!!

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