वो मेरे बच्चों के मूंह से रोटी छीन रहे हैं
मेरे बच्चे गलियों में कागज़ बीन रहे हैं
मैं उनके झंडे का जश्न मनाऊँ कैसे
उनके कौमी तराने को गुनगुनाऊँ कैसे
वादे आजादी के क्या हुए क्या पता
हाँ ज़रूर घर घर में है इक मकबरा
जहाँ से सिसकियाँ सुबह शाम उठती हैं
गंदी गालियाँ सरकार के नाम उठती हैं
जिसके कागज़ तरक्की के आंकड़ों से भर गए
कर्ज के बोझ तले लाखों किसान मर गए
नशे में डूबे बेटों को देखा माओं ने
कितने सूरज उगने से पहले उतर गए
कभी उसका कभी उसका झुनझुना बजाते रहे
कभी इसकी कभी उसकी सरकार लाते रहे
अपना ही राज होगा कई बार सुन लिया अब तो
रोज़ी रोटी का सपना कई बार बुन लिया अब तो
इनमें से सब को अच्छे से आजमा भी चुके
इनसे इन्साफ की गुहार पे मार खा भी चुके
आज इस जश्न में मेरा तो भला है ही क्या
झूठ की झांकियां दो लड्डू के सिवा है ही क्या
वो परचम था कभी मेरा अब उनका हुआ
मेरे लिए तो फक्त डेढ़ गज कपडा-सा हुआ
मैं उनके झंडे का जश्न मनाऊँ कैसे
उनके कौमी तराने को गुनगुनाऊँ कैसे
--- सुरमीत मावी
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