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Saturday, 9 July 2011

करें भी तो क्या

हम कहते ठीक रहे समझे ग़लत जाते रहे
जाने जुबां हमारी 
अजनबी
थी या ज़माने की
ना उड़ी ही रूह, ना मुड़ी ही, बस झूलती-सी रही
रही आस्मां की भी तमन्ना और चाह भी आशियाने की
हम चाहते तो बस भी कह देते ज़ुल्म-ओ-सितम से
बस एक ललक-सी रही क़िस्मत को और आज़माने की
 

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